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नहीं हो पा रही व्यवस्थाएं, इसलिए अंतिम सांस ले रही आरुल की जतरा, यह कदम उठा कर सहेज सकते संस्कृति

  • लोकेश वर्मा, मलकापुर
    बैतूल जिले के बालाजीपुरम से मात्र 4 किलोमीटर दूर आरूल गांव में वर्षों से चैत मास की दूज को लगने वाली जत्रा बदलते परिवेश संस्कृति एवं काल के वश अंतिम सांसें ले रही हैं। मूलतः आदिवासी संस्कृति के जतरे में जेरी के आसपास आदिवासी वाद्य यंत्रों के साथ नाचने गाने का माहौल रहा करता आया है। अब वैज्ञानिक चकाचौंध ने वस्त्र, आभूषण, लोक वाद्य तथा पूजा पद्धति में भी परिवर्तन लाया है। जिसका दुष्प्रभाव आरुल की जतरा पर भी पड़ता जा रहा है।

    आरुल के 80 वर्षीय कन्हैया लाल मालवीय ने बताया कि यह जतरा हमारी दादी को भी नहीं मालूम कब से लग रही है। आसपास के 30 किलोमीटर के लोग इसमें आते थे। हमारे गांव की बहन-बेटियां भी आती थी। बाजपुर के स्वर्गीय घनश्याम पटेल, तिलक पटेल की फाग मंडली विशेष आकर्षण का केंद्र होती थी। यह जेरी एक बार टूट चुकी है। इसको गाड़ने में कोदो, नमक तथा कोयले का उपयोग होता है।

    70 वर्षीय कृषक सुभाष शुक्ला का कहना है कि इसमें पहले गेरू, तेल तथा ग्वारपाठा (एलोवेरा) मिलाकर पोता जाता था। अब चिकनाई के लिए तेल भी मिलाया जाता है। ग्राम के स्वर्गीय जुगी बाबा तत्कालीन उप सरपंच ने ग्रामवासियों को बताया था कि कुछ वर्षों पूर्व मुझे स्वप्न में नई जेरी लाने का आदेश हुआ था। ग्राम में तत्संबंधी बैठक भी हुई थी। 7 गाड़ियों में 7 बोरी नारियल से लाना था। खर्चा लगभग 25 हज़ार होने से नई जेरी नहीं लाई गई।

    ग्राम के घनश्याम मालवीय ने बताया था कि जेरी के पास लगे आम के पेड़ के पास किसी साधु बाबा की (बैठक स्थिति में) समाधि भी है। ग्राम वासियों तथा पड़ोसी कृषक इसकी पूजा करते हैं। उन्होंने बताया कि सिद्ध महात्माओं को मृत्यु उपरांत बैठा कर ही अर्थी निकाली जाती है और बैठक की स्थिति में ही दफनाया जाता है। सो यह मेला सिद्धि स्थल पर लगता है।

    मालगुजार परिवार के नरेंद्र शुक्ला ने बताया कि समाधि कब की है, किसी को नहीं मालूम। इस विलुप्त होती लोक संस्कृति को बचाए रखना हमारी सामूहिक जवाबदारी है और हमारी सांस्कृतिक विरासत भी है। मध्यप्रदेश पाठ्य पुस्तक निगम की माध्यमिक शाला की सहायक वाचन (हिंदी) की पुस्तक में सम्मिलित जिलों की एकमात्र मेला जतरा स्थानाभाव के कारण दम तोड़ती नजर आ रही है। जेरी के ऊपर पहले सवा रुपए और नारियल बांधा जाता था। इसे तोड़ने वालों को पुरस्कार तथा प्रोत्साहित किया जाता रहा है।

    वर्तमान में जेरी शुक्ला परिवार की निजी भूमि में खड़ी हुई है। वहां गन्ना बाड़ी लगी है। सामने आरुल-सोहागपुर तथा आरूल- मलकापुर मुख्य सड़क है। शासकीय भूमि पर अतिक्रमण होने के कारण दुकान लगने, पार्किंग तथा आवागमन की भारी परेशानी है। आवश्यकता है इस लोक संस्कृति को बचाए रखने की, प्रत्येक साल मेला लगना ही चाहिए। यह जवाबदारी प्रशासन की है, ग्रामों की है और विशेष तौर से मेला की सांस्कृतिक विरासत को आत्मसात किए समाज की भी है।

    जब मुख्य सड़कों पर पूरा देश में बाजार लग सकता है जो दोनों सड़कों को एक किनारे पर दुकानें लगाकर एक ओर से आवागमन चालू रखा जा सकता है। वाहन जिस दिशा से आए हैं उसी ओर पार्क कराने की जवाबदारी जनपद, पुलिस तथा ग्राम पंचायत की है जिसका नमूना खेडला किला की व्यवस्था से देखा जा सकता है।

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