यह महज हादसा नहीं बल्कि हमारे समूचे तंत्र की बेशर्मी और निकृष्टता का श्राप

चौधरी मदन मोहन ‘समर’

क्या लिखें और क्या सोचें। रात साढ़े आठ बजे जब आप और हम अपने घरों में डायनिंग टेबल पर स्वादिष्ट भोजन कर रहे थे, भोपाल के हमीदिया अस्पताल के कमला नेहरू बच्चा प्रखंड में सद्यप्रसूता माएँ बदहवास होकर चीख रहीं थीं क्योंकि उनके सामने ही उनके नवजात तड़फ-तड़फ कर निढाल हो रहे थे।

माफ करना अगर आप कहते हैं कि यह एक हादसा था। लेकिन मैं आपसे सहमत कतई नहीं हो सकता। मैं कहता हूँ यह हमारे समूचे तंत्र की बेशर्मी और निकृष्टता का श्राप है। और हम इस श्राप की जद में चौबीस घण्टे जीने को मजबूर हैं।

आखिर ऐसा क्या हो गया है हमारे ढांचे में जब तक पानी सिर पर से न गुजर जाए हमारा तंत्र झंकृत ही नहीं होता। किस गहरी नींद की आदि हो गई है हमारी हर व्यवस्था। जो जन के द्वारा चुने जाकर जन के प्रति उत्तरदायी हैं, वे जन की जगह केवल अपने स्थान सुरक्षित करने में जीवन खपा देते हैं।

जन पर क्या बीत जाती है इस पर केवल चिंता व्यक्त कर कर्तव्य की इतिश्री मान ली जाती है। जो उच्च स्तर की परीक्षाएं देकर जन सेवक के लिए तंत्र की नस नाड़ी बनकर आते हैं वे बस कागजों की नाव पर समंदर लांघने के प्रयास करते हुए टूटी पतवार लिए अपने रथ सुरक्षित करने की चिंता में साढ़े तीन दशक काटने की मानसिकता में वक्त पास करते हैं।

जन के आंसू उनके लिए न तो कभी कीमती हुए न महत्वपूर्ण। हर टेबल केवल टे(क)बल पर ही काम करने में क्यों वक्त काटता है। और यही सब मिल कर ही तो निर्मित करते हैं भोपाल के हमीदिया अस्पताल के कमला नेहरू बाल प्रखंड के नवजात बच्चों का काल।

इसे केवल हादसा कह कर उन माओं को दिलासा नहीं दी जा सकती जिन्होंने नौ माह कोख में अपने सुनहरे सपने को रक्त, गन्ध और आस्तित्व का स्नेह पान करा कर पाला था व अभी उसने दुनिया में आए बच्चे को दो दिन लोरी भी नहीं सुनाई कि उसे अपने सामने खाक होते देखना पड़ा। आप कैसे उसके दिन लौटा सकते हैं।

जहां जीवन का विश्वास पल रहा हो उसी जगह मौत का तांडव हमारे समूचे तंत्र, व्यवस्था और उत्तरदायित्वों के मुंह पर केवल तमाचा भर नहीं है यह अभिशाप है हमारे हर उस टेबल, चेम्बर और पंडाल के लिए जो संवेदन हीन होकर बस वेतन लेकर किसी मॉल में खरीददारी कर धन्य हो रहा है।

चौ. मदन मोहन समर

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