थके हुए घोड़ों को डर्बी रेस में दौड़ाने से बदनाम होता है देश का नाम


इस टूर्नामेंट के दोनों मैचों में किसी भी खिलाड़ी के चेहरे को देखकर ऐसा जरा भी नहीं लग रहा था कि उसके अंदर जीतने की‌ तनिक भी इच्छा है। इससे ज्यादा‌ आक्रामक ढंग से तो गली-मोहल्ले के बच्चे खेलते हैं। वास्तव में बस वे खेलने की रस्म अदायगी भर कर रहे थे। हर टीम का अपना एक स्तर बन जाता है और उनसे अपेक्षा की‌ जाती है कि वे उस स्तर का प्रदर्शन जरूर करें, फिर वह चाहे हार भी जाए। मगर यहां पर नए-पुराने सभी खिलाड़ी हारे हुए और थके से लग रहे थे। ऐसा लग रहा था कि जैसे वे किसी तरह बस बीस ओवर पूरा करना चाहते हैं। इन सारे खिलाड़ियों के पेट भरे हुए हैं। करोड़ों रुपये की‌ इनकम है। ऐसे में वे रस्म अदायगी नहीं करेंगे तो क्या‌ करेंगे। मुझे कोहली की बॉडी लैंग्वेज देखकर बरबस कपिल देव की याद आ गई जो हर गेम में जूझकर खेलते थे और कप्तानी करते थे। उनके चेहरे पर जीतने की इच्छा साफ दिखाई देती थी दूसरी ओर कोहली प्लेयर कम‌ और सेलेब्रिटी अधिक लग रहे थे। कुल मिलाकर देखा जाए तो भारतीय टीम एक जोकर की‌ तरह लग रही थी, जो कुछ करने से बच रही थी। थके हुए घोड़ों को डर्बी रेस में दौड़ाने पर देश का नाम भी बदनाम होता है। हम पिच को दोष देकर भी नहीं बच सकते क्योंकि इसी पिच पर विरोधी टीम ने हमें काफी मार्जिन के साथ हराया है।
(लेखक मूलतः बैतूल निवासी हैं और वर्षों पूर्व अमेरिका में बस चुके हैं। खेल गतिविधियों को बढ़ावा देने में वे न केवल हमेशा सक्रिय रहते हैं बल्कि हरसंभव सहयोग भी करते हैं)

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