अंग्रेजों की सशस्त्र सेना से 7 दिनों तक बहादुरी से लड़ी थीं रानी लक्ष्मी बाई
जिन महापुरुषों का मन वीरोचित भाव से भरा होता है, उसका लक्ष्य सामाजिक उत्थान और राष्ट्रीय उत्थान ही होता है। वह एक ऐसे आदर्श चरित्र को जीता है, जो समाज के लिए प्रेरणा बनता है। इसके साथ ही वह अपने पवित्र उद्देश्य की प्राप्ति के लिए सदैव आत्मविश्वासी, कर्तव्य परायण, स्वाभिमानी और धर्मनिष्ठ होता है। ऐसी ही थीं महारानी लक्ष्मीबाई। उनका जन्म काशी में 19 नवंबर 1835 को हुआ। इनके पिता मोरोपंत ताम्बे चिकनाजी अप्पा के आश्रित थे। इनकी माता का नाम भागीरथी बाई था। महारानी के पितामह बलवंत राव के बाजीराव पेशवा की सेना में सेनानायक होने के कारण मोरोपंत पर भी पेशवा की कृपा रहने लगी। लक्ष्मीबाई अपने बाल्यकाल में मनु व मणिकर्णिका के नाम से जानी जाती थीं।
सन् 1850 मात्र 15 वर्ष की आयु में झांसी के महाराजा गंगाधर राव से मणिकर्णिका का विवाह हुआ। एक वर्ष बाद ही उनको पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई, लेकिन चार माह पश्चात ही उस बालक का निधन हो गया। राजा गंगाधर राव को तो इतना गहरा धक्का पहुंचा कि वे फिर स्वस्थ न हो सके और 21 नवंबर 1853 को चल बसे। यद्यपि महाराजा का निधन महारानी के लिए असहनीय था, लेकिन फिर भी वे घबराई नहीं, उन्होंने विवेक नहीं खोया। राजा गंगाधर राव ने अपने जीवनकाल में ही अपने परिवार के बालक दामोदर राव को दत्तक पुत्र मानकर अंगे्रज सरकार को सूचना दे दी थी परंतु ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार ने दत्तक पुत्र को अस्वीकार कर दिया।
यहीं से प्रस्फुटित हुआ था क्रांति का बीज
27 फरवरी 1854 को लार्ड डलहौजी ने गोद की नीति के अंतर्गत दत्तक पुत्र दामोदर राव की गोद अस्वीकृत कर दी और झांसी को अंग्रेजी राज्य में मिलाने की घोषणा कर दी। यह सूचना पाते ही रानी के मुख से यह वाक्य प्रस्फुटित हो गया, मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी। यहीं से भारत की प्रथम स्वाधीनता क्रांति का बीज प्रस्फुटित हुआ। रानी लक्ष्मीबाई ने सात दिन तक वीरतापूर्वक झांसी की सुरक्षा की और अपनी छोटी-सी सशस्त्र सेना से अंग्रेजों का बड़ी बहादुरी से मुकाबला किया। रानी ने खुलेरूप से शत्रु का सामना किया और युद्ध में अपनी वीरता का परिचय दिया।
दत्तक पुत्र को पीठ पर बांध कर किया युद्ध
वे अकेले ही अपनी पीठ के पीछे दामोदर राव को कसकर घोड़े पर सवार हो, अंग्रेजों से युद्ध करती रहीं। बहुत दिन तक युद्ध का क्रम इस प्रकार चलना असंभव था। सरदारों का आग्रह मानकर रानी ने कालपी प्रस्थान किया। वहां जाकर वे शांत नहीं बैठीं। उन्होंने नाना साहब और उनके योग्य सेनापति तात्या टोपे से संपर्क स्थापित किया और विचार-विमर्श किया। रानी की वीरता और साहस का लोहा अंग्रेज मान गए, लेकिन उन्होंने रानी का पीछा किया। रानी का घोड़ा बुरी तरह घायल हो गया और अंत में वीरगति को प्राप्त हुआ, लेकिन रानी ने साहस नहीं छोड़ा और शौर्य का प्रदर्शन किया।
21वीं सदी में भी इसलिए हैं वे प्रेरणास्रोत
कालपी में महारानी और तात्या टोपे ने योजना बनाई और अंत में नाना साहब, शाहगढ़ के राजा, वानपुर के राजा मर्दनसिंह आदि सभी ने रानी का साथ दिया। रानी ने ग्वालियर पर आक्रमण किया और वहां के किले पर अधिकार कर लिया। विजयोल्लास का उत्सव कई दिनों तक चलता रहा, लेकिन रानी इसके विरुद्ध थीं। यह समय विजय का नहीं था, अपनी शक्ति को सुसंगठित कर अगला कदम बढ़ाने का था। इधर जनरल स्मिथ और मेजर रूल्स अपनी सेना के साथ संपूर्ण शक्ति से रानी का पीछा करते रहे और आखिरकार वह दिन भी आ गया जब उसने ग्वालियर का किला घमासान युद्ध करके अपने कब्जे में ले लिया। रानी लक्ष्मीबाई इस युद्ध में भी अपनी कुशलता का परिचय देती रहीं। 18 जून 1858 को ग्वालियर का अंतिम युद्ध हुआ और रानी ने अपनी सेना का कुशल नेतृत्व किया। वे घायल हो गईं और अंतत: उन्होंने वीरगति प्राप्त की। रानी लक्ष्मीबाई ने स्वातंत्र्य युद्ध में अपने जीवन की अंतिम आहूति देकर जनता जनार्दन को चेतना प्रदान की और राष्ट्रीय रक्षा के लिए बलिदान का संदेश दिया।
ताज महज से भी पुराना है झांसी का किला
झांसी का किला ताजमहल से पुराना है। आगरा में ताजमहल का निर्माण 1632-53 के बीच हुआ था जबकि, झांसी के किले का निर्माण 1613-19 के बीच ओरछा के राजा वीर सिंह जूदेव ने बंगरा नामक पहाड़ी पर तकरीबन पंद्रह एकड़ के क्षेत्रफल में कराया था। इसमें बुंदेली और मराठा स्थापत्य कला शैली की जुगलबंदी देखने को मिलती है। किले के भीतर गणेश मंदिर व भगवान शिव का प्राचीन मंदिर है। रानी के मुख्य तोपची गुलाम गौस खां की कड़क बिजली तोप मुख्य द्वार से प्रवेश करते ही पर्यटकों का स्वागत करती नजर आती है। दुर्ग के भीतर बना पंच महल झांसी के पुराने वैभव को दर्शाता है। किले में 22 बुुर्ज और दो तरफ रक्षा खाई है। किले के बुर्जों पर खड़े होकर पूरे शहर को निहारा जा सकता है। निर्माण के 25 सालों तक मराठाओं ने यहां राज्य किया। इसके बाद ये मुगल, मराठा व अंग्रेजों के अधिकार में रहा। 1938 में किला केंद्रीय पुरातात्विक संरक्षण में लिया गया।
बेहद अनूठा है इस किले का परकोटा
किले से जुड़ा हुआ पुराने शहर को चारों ओर से घेरे हुआ परकोटा अपने आप में अनूठा है। इसमें बाहर आने जाने के लिए 10 द्वार व चार खिड़कियां (छोटे दरवाजे) हैं। परकोटे की दीवार, दरवाजे और खिड़कियों ने 1957 के संग्राम में झांसी की ढाल बनकर रक्षा की थी। किले के सबसे ऊंचे स्थान पर ध्वज स्थल है जहां आज तिरंगा लहरा रहा है। किले से शहर का भव्य नजारा दिखाई देता है। यह किला भारतीय पुरातत्व विभाग के संरक्षण में है और देखने के लिए पर्यटकों को टिकट लेना पड़ता है।